दहेज की बात पर कहाँ चले जाते हैं आपके आदर्श और सिद्धांत ???

आपकी बेहतरीन पर्सनैलिटी बहुतों को भाती है. चेहरे पर पतले फ्रेम का चश्मा, बदन पर क्रीचदार शर्ट को देखकर दूर से लोग खुश हो जाते हैं. उच्चस्तरीय लहजे में बात करना और आपके सिद्धांत बुरे लोगों को भी प्रभावित कर जाते हैं. आप खुद में भी खुश हैं अपने बारे ये सोचकर कि आप समाज के सफलतम व्यक्तियों में से हैं.

      पर एक बात कहूँ, बुरा मत मानियेगा. और यदि मान भी गए तो ठेंगे से. मेरे हिसाब से आप निहायत घटिया किस्म के आदमी हैं. बेटे को पढ़ा-लिखा कर लायक क्या बना दिया, आपके सिद्धांत कहीं घास चरने चले गए. कई बेटियों के अभागे पिता जब बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिए लेकर आपके पास आये तो आप दहेज मांगने लगे. क्यूं ???

      क्या बेटी के पिता ने जो धन अर्जन किया वो आपकी बपौती संपत्ति है ? क्या उसे आप उनके मन से खर्च करने की आजादी दे देंगे तो वो अपने कलेजे के टुकड़े को कुछ नहीं देंगे ? यदि नहीं भी देते हैं तो क्या पराये घर की उस बेटी को जो अब आपके घर की शोभा है, को खिलाने की औकात नहीं है. लाचार और मजबूर बाप को दरवाजे से वापस इसलिए कर देते हैं कि वो आपके डिमांड पर खरा नहीं उतरा. बेशर्मी से बाद में कहते हैं- लड़की तो अच्छी थी, पर बाप पैसा ही नहीं निकाला. और बगल में बैठी आपकी वही मैडम जिसकी शादी में भी उसके बाप को पापड़ बेलने पड़े थे, उस समय की बात को भूलकर आपके घटिया विचारों में बहकर कहती है- सब फक्करबा को हमरे बेटा दिखता है ?
      माफ कीजियेगा. आप खुद की पीठ थपथपाते रहिये, पर आपको अभी काफी आत्ममंथन करने की आवश्यकता है. अगर ईमानदारी से आप अपने विचारों को जस्टिफाई करें तो आप निहायत गिरे हुए टाइप के इंसान हैं.
      आत्ममंथन कीजिए और इस गंदी दहेज प्रथा को भी अपने घर से निकालिए, वर्ना साफ़ कपड़े पहन कर सिद्धांत और आदर्श की बात करना आपको शोभा नहीं देता. किसी के कहे इन शब्दों पर भी जरा सोचिये
 Every dowry demand is a DEATH THREAT, Dont marry! Walk away!

कार्यस्थलों पर भी रेपिस्ट मानसिकता के अधिकारी-कर्मचारी का करें विरोध

ये एक मानसिकता है. घटिया मानसिकता. भारत इस तरह की सड़ी-गली मानसिकता से अपने को निकाल नहीं पा रहा है. आये दिन हो रहे बलात्कार का विरोध तो हम जम कर करते हैं पर ये विरोध कमोबेश महज प्रदर्शित करने भर के लिए है. घटना के बारे में सुना-जाना-पढ़ा और विरोध कर दिया और फिर लग गए अपने कामों में. विरोध करना शायद रूटीन वर्क जैसा बनकर रह गया.
      घर में टीवी के सामने बैठा या फिर अखबार लेकर. दुष्कर्म की घटना देखा-पढ़ा और सोचने लगते हैं कि कब रूकेगा ये सब. फिर निकल कर सड़कों पर चलते हैं और लड़कियों को छिपी नजर से निहारने लगते हैं. नाबालिगों तक को. कल्पना में उसका जिस्म. फिर संभलते हुए अगल-बगल झांकते हैं कि कोई देखते हुए देख तो नहीं रहा है. कार्यालयों में साथ काम कर रही महिला वर्कर के बारे में अन्य पुरुष वर्कर से अश्लील अंदाज में बात करते हैं. मन में यह दुर्भावना अक्सर बनी रहती है कि यदि सुरक्षित ढंग से मौका लगे तो शारीरिक सम्बन्ध बनाया जा सकता है. ऐसी मानसिकता सबकी नहीं तो अधिकाँश कार्यालयों के अधिकाँश अधिकारी-कर्मचारियों की तो रहती ही है. ऐसी मानसिकता को रेपिस्ट मानसिकता कह दें तो शायद अपराध नहीं होगा.
      ऐसे माहौल में नौकरीशुदा कुंवारी लड़कियां या फिर शादीशुदा महिलायें कार्यस्थलों पर पूर्णतया सुरक्षित नहीं हैं. माहौल जबतक अनुकूल है तबतक ही सुरक्षित. कभी किसी आकस्मिक काम की वजह से देर हो गई और कार्यालय में पुरुष कर्मचारी के साथ अकेले रह गए तो पुरुषों के हाव-भाव या बात करने के अंदाज से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये मौका का लाभ उठाने को सोच रहे हैं. ये अलग बात है कि अधिकाँश मामलों में आपकी सख्ती के सामने इनकी हिम्मत जवाब दे देती है. कभी-कभी ये आपको इम्प्रेस कर लाभ उठाने की भी फिराक में रहते हैं. कार्यालय अवधि में शराब का सेवन करने वाले लगभग सारे अधिकारी-कर्मचारी लूज कैरेक्टर के होते हैं ये कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं है. उस समय ये रेपिस्ट मानसिकता वाले पुरुष भूल जाते हैं कि उनकी माँ-बहन की ऐसी ही परिस्थिति में आती होंगी. कार्यस्थलों पर यौन शोषण की बातें या फिर प्रयास के मामले अक्सर सुनने को मिलते हैं.
      अब वो दिन गए जब शोषण करने वाले पुरुष लड़कियों को यह कहकर डराने का प्रयास करते थे कि कहीं कहोगी तो तुम्हारी भी बहुत बेइज्जती होगी और लड़कियां उनके झांसे में आकर चुप रह जाती थी. दरअसल वक्त आ चुका है कि महिलायें अब झिझक को छोड़ ऐसे रेपिस्ट मानसिकता वाले अधिकारी-कर्मचारी की मंशा को सबके सामने उजागर करें ताकि इन सफेदपोश बलात्कारियों के बारे में भी दुनियां जान सके.

किशोरों को बलात्कार में आकर्षक सरकारी छूट ?


दिल्ली गैंग रेप के एक आरोपी को नाबालिग करार देने के बाद भारत के लॉ ऑफ जुवेनाइल के तहत उसका ट्राइल होना कई सवालों को पीछे छोड़ देता है. क्या एक व्यक्ति जो बलात्कार और हत्या करने में शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम है वह वैज्ञानिक रूप से नाबालिग हो सकता है ? क्या स्कूली सर्टिफिकेट में अंकित जन्म तिथि किसी को बालिग-नाबालिग निर्धारित करने में महत्वपूर्ण माना जा सकता है ? क्या ऐसे बहुचर्चित कांड में इस तरह का निर्णय पूरे देश के किशोरों के मन में बलात्कार करने की भावना को नहीं पनपा सकता है ? यदि किशोरों के द्वारा धड़ल्ले से बलात्कार की घटनाओं को कारित किया जाता है तो सरकार जुवेनाइल जस्टिस के क़ानून में बदलाव नहीं लाएगी ? और यदि लाएगी तो क्या ये वक्त उस सड़े-गले क़ानून को बदलने के लिए सही नहीं था ?
      मानव के शारीरिक विकास की यदि बात करें तो एक सामान्य युवक चौदह साल के बाद ही सेक्स करने में सक्षम हो सकता है. तो फिर ऐसे मामले में 18 वर्ष के मानक बरक़रार रखना क़ानून बनाने वालों की मानसिक दिवालियापन को दर्शाता है. खुलेपन के इस दौर में यदि आप सड़कों पर एक्टिव मनचलों पर एक नजर दौडाएं तो इसमें किशोरों की बड़ी तादाद मिलेगी.
      दिल्ली गैंगरेप कांड में सबसे घिनौनापन इसी नाबालिग ने दिखाया था और इसी के उकसाने पर देश को हिला देने वाली ये घटना घटी. पर भारतीय क़ानून में बड़ा लूपहोल होने के कारण वह जल्द ही आजाद होगा. नाबालिगों के लिए ऐसे जघन्य अपराध में भी सिर्फ तीन वर्ष की सजा होना ऐसे मामलों में कमजोर भारतीय क़ानून को दर्शाता है. ऐसे में क्या सरकार इस बात को बढ़ावा नहीं दे रही है कि किशोर इस कानूनी कमजोरी का लाभ उठाएं और कमजोर क़ानून से अपने आपको बचा ले ? कानून का दूसरा घिनौना पहलू सभी सजाएं साथ-साथ चलेगी.यानी अलग-अलग अपराधों के लिए भले ही अलग-अलग सजा दे दी जाय पर सभी सजाएं साथ-साथ चलने की वजह से जिस धारा में अधिकतम सजा दी जाती है प्रयोग में वही लागू होता है.
गनीमत है कि ये नाबालिग सरकार के वोट बैंक नहीं है नहीं तो शायद सरकार इसे ऑफर के रूप में भुना भी सकती थी और कोई नई सरकारी योजना भी शुरू की जा सकती थी. जैसे, राजीव गांधी बलात्कार योजना.