दिल्ली गैंग रेप के एक आरोपी को नाबालिग करार देने
के बाद भारत के ‘लॉ ऑफ
जुवेनाइल’ के तहत उसका ट्राइल
होना कई सवालों को पीछे छोड़ देता है. क्या एक व्यक्ति जो बलात्कार और हत्या करने
में शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम है वह वैज्ञानिक रूप से नाबालिग हो सकता है ?
क्या स्कूली सर्टिफिकेट में अंकित जन्म तिथि किसी को बालिग-नाबालिग निर्धारित करने
में महत्वपूर्ण माना जा सकता है ? क्या ऐसे बहुचर्चित कांड में इस तरह का निर्णय पूरे
देश के किशोरों के मन में बलात्कार करने की भावना को नहीं पनपा सकता है ? यदि
किशोरों के द्वारा धड़ल्ले से बलात्कार की घटनाओं को कारित किया जाता है तो सरकार ‘जुवेनाइल जस्टिस’ के क़ानून में बदलाव नहीं लाएगी
? और यदि लाएगी तो क्या ये वक्त उस सड़े-गले क़ानून को बदलने के लिए सही नहीं था ?
मानव के
शारीरिक विकास की यदि बात करें तो एक सामान्य युवक चौदह साल के बाद ही सेक्स करने
में सक्षम हो सकता है. तो फिर ऐसे मामले में 18 वर्ष के मानक बरक़रार रखना क़ानून
बनाने वालों की मानसिक दिवालियापन को दर्शाता है. खुलेपन के इस दौर में यदि आप
सड़कों पर एक्टिव मनचलों पर एक नजर दौडाएं तो इसमें किशोरों की बड़ी तादाद मिलेगी.
दिल्ली
गैंगरेप कांड में सबसे घिनौनापन इसी नाबालिग ने दिखाया था और इसी के उकसाने पर देश
को हिला देने वाली ये घटना घटी. पर भारतीय क़ानून में बड़ा ‘लूपहोल’ होने के कारण वह जल्द ही आजाद
होगा. नाबालिगों के लिए ऐसे जघन्य अपराध में भी सिर्फ तीन वर्ष की सजा होना ऐसे
मामलों में कमजोर भारतीय क़ानून को दर्शाता है. ऐसे में क्या सरकार इस बात को बढ़ावा
नहीं दे रही है कि किशोर इस कानूनी कमजोरी का लाभ उठाएं और कमजोर क़ानून से अपने
आपको बचा ले ? कानून का दूसरा घिनौना पहलू “सभी सजाएं साथ-साथ चलेगी’.यानी अलग-अलग अपराधों के लिए भले ही अलग-अलग सजा दे दी जाय
पर सभी सजाएं साथ-साथ चलने की वजह से जिस धारा में अधिकतम सजा दी जाती है प्रयोग
में वही लागू होता है.
गनीमत है कि ये नाबालिग सरकार के
वोट बैंक नहीं है नहीं तो शायद सरकार इसे ऑफर के रूप में भुना भी सकती थी और कोई नई
सरकारी योजना भी शुरू की जा सकती थी. जैसे, ‘राजीव गांधी बलात्कार योजना’.